इस इक्कीसवीं सदी के कोरोना काल मे सोच रहे है ।
“ कौन हूँ मैं “
उनका बचपन कोरोना काल में खो गया है ।
आन लाइन पढ़ाई उनके लिए मझधार बन गया है ।
कोरोना ने उनके चेहरे की मासूमियत छीन ली
जो आपस में गले मिलते थे ।
वह कोरोना और आन लाइन उनके बीच की दीवार बन गई ।
जो आपस मे एक दूसरे के साथ खाना खाते थे ।
वह बंद दरवाजों मे परिवार के साथ खाते है ।
इस संकट काल मे वह अपनों से दूर हो गए ।
“ कौन हूँ मैं “
हमारा बचपन छीन कर क्या मिला ।
मित्रता का अटूट बंधन एक आन लाइन तक सीमित हो गया
हम जिंदगी का सफर अपने सपनों के साथ खुले आसमान में ऊँची छलांग लगाकर जीते थे ।
कोरोना ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है ।
हम सोचने को मजबूर हो गए कि “ कौन हूँ मैं ।“
डॉ. वर्षा सिंह
हिन्दी अध्यापिका
सी बी एस ई
Leave A Comment